पुरापाषाण युग के मानव को आखेटक और खाद्य संग्राहक के रूप में वर्णन कीजिये

प्रश्न 1. पुरापाषाण युग के मानव को आखेटक और खाद्य संग्राहक के रूप में
वर्णन कीजिय
                            उत्पेलिअलिथिक) युग : ‘आखेटक और खाद्य संग्राहक
पृथ्वी 400 करोड़ वर्षों से अधिक पुरानी है। इसकी परत के विकास से चार
अवस्थायें प्रकट होती हैं। चौथी अवस्था चातुर्थिकी (क्वाटर्नरी) कहलाती है, जिसके दो
भाग हैं, अतिनूतन (प्लाइस्टोसीन) और अद्यतन (होलीसीन)। पहला दूसरे से पूर्व बीस
लाख और दस हजार वर्ष के बीच था और दूसरा आज से लगभग दस हजार वर्ष पहले
शुरु हुआ। कहा जाता है कि मानव धरती पर प्लाइस्टोसीन के आरम्भ में पैदा हुआ। इसी
समय असली गाय, असली हाथी और असली घोड़ा भी उत्पन्न हुआ था। परन्तु लगता है
कि यह घटना अफ्रीका में लगभग 26 लाख वर्ष पहले हुई होगी।
आदिम मानव के जीवाश्म (फॉसिल) भारत में नहीं मिले हैं। मानव के प्राचीनतम्
अस्तित्व का संकेत द्वितीय हिमावर्तन (ग्लेसिएशन) काल के बताए जाने वाले संचयों में
मिले पत्थर के औजारों से मिलता है, जिसका काल लगभग 250000 ई० पू० रखा जा
सकता है। लेकिन हाल में महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान से जिन तथ्यों की रिपोर्ट मिली है
उनके अनुसार मानव की उपस्थिति और भी पहले 14 लाख वर्ष पूर्व रखी जाती है, पर इस
विषय पर और खोज की जरूरत है। अब मालूम होता है कि अफ्रीका की अपेक्षा भारत में
मानव बाद में बसे, हालांकि इस उपमहाद्वीप का पाषाण मोटे तौर पर उसी तरह विकसित
हुआ
है जिस तरह अफ्रीका में। भारत में आदिम मानव पत्थर के अनगढ़ और अपरिष्कृत
का औजारों का इस्तेमाल करता था। ऐसे औजार सिन्धु, गंगा और यमुना के कछारी मैदानों
को छोड़ सारे देश में पाए गये हैं। तराशे हुए पत्थर के औजारों और फोड़ी हुई गिट्टियों से वे
शिकार करते, पेड़ काटते तथा अन्य कार्य भी करते थे। इस काल में मानव अपना
(भोजन) कठिनाई से ही बटोर पाता और शिकार से जीता था। वह खेती करना और घर
बनाना नहीं जानता था। यह अवस्था सामान्यत: 9000 ई० पू० तक बनी रही।
पुरापाषाण काल के औजार छोटानागपुर के पठार में मिले हैं जो 10000 ई० पूर्व के
हो सकते हैं। ऐसे औजार, जिनका समय 20000 ई० र्पू० और 10000 ई० पू० के बीच है,
आंध्र प्रदेश के कुर्नूल शहर से लगभग 55 किमी० की दूरी पर मिले हैं। इनके साथ हड्डी के
उपकरण और पशुओं के अवशेष भी मिले हैं। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले की बेलन घाटी
में जो पशुओं के अवशेष मिले हैं उनसे ज्ञात होता है कि बकरी-भेड़, गाय-भैंस आदि
मवेशी पाले जाते थे। फिर भी पुरापाषाण युग की आदिम अवस्था का मानव शिकार 

और खाद्य-संग्रह पर जीता था। पुराणों में केवल फल और कंद-मूल खाकर जीने वाले लोगों
की चर्चा है। इस तरह के कुछ लोग तो आधुनिक काल में पर्वत और गुफाओं में रहते और
उसी पुराने ढंग से जीते आए हैं।
भारत की पुरापाषाण युगीन सभ्यता का विकास प्लाइस्टोसीन काल या हिम-युग में
हुआ। यद्यपि पत्थर के औजारों के साथ मानव अवशेष जो अफ्रीका में मिले हैं वे 26 लाख
वर्ष पुराने माने जाते हैं, तथापि यदि हम भारत में मिलो बोरी की सामग्री को छोड़ दें तो
पत्थर के औजारों से स्पष्टत: लक्षित मानव की प्रथम उपस्थिति मध्य-प्लाइस्टोसीन अर्थात्
पाँच लाख वर्ष से पूर्व की नहीं ठहरती है। प्लाइस्टोसीन काल में पृथ्वी की सतह का बहुत
आधिक भाग खासकर अधिक ऊँचाई पर और उसके आस-पास के स्थान, बर्फ की चादरों
से ढका रहता था। किन्तु पर्वतों को छोड़ उष्ण-कटिबंधीय क्षेत्र बर्फ से मुक्त था, बल्कि
वहाँ दीर्घ काल तक भारी वर्षा होती रही।
                                       पुरापाषाण युग की अवस्थायें
भारतीय पुरापाषाणकाल युग को, मानव द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले पत्थर के
औजारों के स्वरूप और जलवायु में होने वाले परिवर्तन के आधार पर तीन अवस्थाओं में
बाँटा जाता है। पहली को आरम्भिक या निम्न-पुरापाषाण युग, दूसरी को मध्य-पुरापाषाण
युग और तीसरी को ऊपरी-पुरापाषाण युग कहते हैं। जब तक शिल्प सामग्रियों के बारे में
पर्याप्त जानकारी नहीं मिल जाती, तब तक मोटे तौर पर पहली अवस्था को 500000 ई०
पू० और 50000 ई० पू० के बीच, दूसरी अवस्था को 50000 ई० पू० और 40000 ई०
पू० के बीच और तीसरे को 40000 ई० पू० और 10000 ई० पू० के बीच रखते हैं पर
40000 ई० पू० और 15000 ई० पू० के बीच दकन के पठार में मध्य-पुरापाषाण युग तथा
पुरापाषाण युग दोनों के औजार मिलते हैं।
अधिकांश आरम्भिक पुरापाषाण यग हिम-युग से गुजरा है। इसका लक्षण है
कुल्हाड़ी या हस्त-कुठार (हैड-एक्स), विदारणी (क्लीवर) और खंडक (चॉपर) का
उपयोग। भारत में पाई गई कुल्हाड़ी काफी हद तक वैसी ही है जैसी पश्चिम एशिया, यूरोप
और अफ्रीका में मिली है। पत्थर के औजार से मुख्यतः काटने, खोदने और छीलने का
काम लिया जाता है। आरम्भिक पुरापाषाण युग के स्थल अब पाकिस्तान में पड़ी पंजाब की
सोअन या सोहन नदी की घाटी में पाए जाते हैं। कई स्थल कश्मीर और थार मरुभूमि में
मिले हैं। आरम्भिक पुरापाषाण कालीन औजार उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में बेलन घाटी
में भी पाए गये हैं। जो औजार राजस्थान की मरूभमि के दिदवाना क्षेत्र में, बेलन और
नर्मदा की घाटियों में तथा मध्य प्रदेश के भोपाल के पास भीमबेटका की गुफाओं और
शैलाश्रयों (चट्टानों से बनें आश्रयों) में किले हैं वे मोटर-मोटी 10000 ई० पू० के हैं।
शैलाश्रयों का उपयोग मानवों के ऋतकाकि बसों के रूप में किया जाता होगा। हस्त-कुठार
द्वितीय हिीमालयीय अर्तिमावर्तन (इंटएग्लेसिएशन) के समय के जमाव में मिले है। इस
अवधि में जलवायु में नमी कम हो गई थी।  मध्य-पुरापाषाण युग में उद्योग मुख्यतः

पत्थर की पपड़ी में बनी वस्तुओं का था। वे

पपड़ियाँ सारे भारत में पाई गई हैं और इनमें क्षेत्रीय भेद भी पाए गये हैं। मुख्य औजार हैं
पपड़ियों के बने विविध प्रकार के फलक, वेधनी, छेदनों और खुरचनी। हमें वैधानियाँ और
फलक जैसे हथियार भी भारी मात्रा में मिले हैं। मध्य-पुरापाषाण स्थल जिस क्षेत्र में मिलते
हैं, मोटे तौर पर उसी क्षेत्र में आरम्भिक पुरापाषाण स्थल भी पाए जाते हैं। यहाँ हम एक
प्रकार के सरल बटिकाश्म उद्योग (पत्थर के गोलों में वस्तुओं का निर्माण) देखते हैं। तो
तृतीय हिमालयीय हिमावर्तन के सीधे समकाल में चलता है। इस युग को शिल्प-सामग्री
नर्मदा नदी के किनारे-किनारे कई स्थानों पर और तुगभद्रा नदी के दक्षिणवर्ती कई स्थानों
पर भी पाई जाती है।
ऊपरी पुरापाषाणीय अवस्था में आर्द्रता कम थी। इस अवस्था में विस्तार हिम-युग
की उस अंतिम अवस्था के साथ रहा जब जलवायु अपेक्षाकृत गर्म हो गई थी। विश्वव्यापी
संदर्भ में इसकी दो विशेषतायें हैं। नये चकमक उद्योग की स्थापना और आधुनिक प्रारूप के
मानव (होमोसेपिएस) का उदय। भारत में फलकों और तक्षणियों (ब्लैड्स और ब्युरिन्स)
का इस्तेमाल देखा जाता है, जो आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केन्द्रीय मध्य प्रदेश, दक्षिणी
उत्तर प्रदेश, बिहार के पठार में और उनके इर्द-गिर्द पाए गए हैं। ऊपरी पुरापाषाणीय
अवस्था के मानवों के उपयोग के लायक गुफायें और शैलाश्रम भोपाल के दक्षिण में 40
किलोमीटर दूर भीमबेटका में मिले हैं। गुजरात के टिब्बों के ऊपरी तलों पर ऊपरी
पुरापाषाणीय भंडार भी मिला है शल्कों, फलकों, तक्षणियों और खुरचनियों का अपेक्षाकृत
अधिक मात्रा में पाया जाता है।
इस प्रकार देश के अनेकों पहाड़ी ढलानों और नदी-घाटियों में पुरापाषाणीय स्थल
पाए जाते हैं। किन्तु सिन्धु और गंगा के कछारी मैदानों में इनका पता नहीं है।

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